कुछ लोग जिवन मे बङी मेहनत व लगन के साथ तिर्थ,तप, जप,पूजा पाठ, दान धर्म तो करते है, मगर माता-पिता, गुरुदेव, कुलदेवी और देवता ,स्थान देवता, ग्राम देवता, क्षेत्रपाल देवता, वास्तु देवता, आदि का तिरस्कार करते हैँ। धिक्कार है फिर भी जीवन मे अच्छे पद प्रतिष्ठा, पैसा, उतम स्वास्थय व सेवा भावी सन्तान कि कामना करते है। ऐसे लोगो को भटकते मूर्ख के सिवाय कुछ नही कहा जा सकता है।

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मैं मेंरे लोकप्रिय देव धाम श्री संकटमोचन हनुमानजी

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धर्मप्रेमी दर्शन आपकी सेवा में हाजिर है सभी धर्म प्रेमियोँ को मेरा यानि पेपसिह राठौङ तोगावास कि तरफ से सादर प्रणाम।- पेपसिह राठौङ तोगावास

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"मेरा धर्म दृष्टिकोण" मेरे दृष्टिकोण में जीवन के कुछ क्षण वास्तव में इतने सरस और अविस्मरणीय होते हैं,जिनकी स्मृतियाँ सदैव के लिए ज़हन में मधुरता भर देती है !भगवान से यही प्रार्थना है कि यह मधुरता आजन्म आप के और मेरे साथ रहे !

"यदा यदा ही धर्मस्य,ग्लानिर्भवति भारत |
अभ्युत्थानम् धर्मस्य,तदात्मनं सृजाम्यहम् ||
परित्राणाय साधुनां विनाशाय च दुष्कृताम् |
धर्मसंस्थापनार्थाय,संभवामि युगे युगे ||"
गीता में भगवानश्रीकृष्ण ने कहा है कि,जब-जब धर्म की हानि होती है, तब-तब मेरी कोई शक्ति इस धरा धाम पर, अवतार लेकर भक्तों के दु:ख दूर करती है और धर्म की स्थापना करती है। भारत के तीर्थ स्थलों में कोई भोले का धाम है तो कोई जगत् नियंता श्री विष्णु का प्रतिनिधित्व करता है। कोई श्री राम के चरण रज से परम पवित्र है तो कोई श्री कृष्ण की जीवन,कर्म व लीला भूमि है। कोई देवी मां के पूजनादि की आदि भूमि है तो कोई संत महात्माओं की कृपा दृष्टि से धर्म नगरी के रूप में स्थापित हुआ।

भारतीय संस्कृति में मानव जीवन के लक्ष्य भौतिक सुख तथा आध्यात्मिक आनंद की प्राप्ति के लिए अनेक देवी देवताओं की पूजा का विधान है जिनमें पंचदेव प्रमुख हैं। पंच देवों का तेज पुंज श्री हनुमान जी हैं। माता अन्जनी के गर्भ से प्रकट हनुमान जी में पांच देवताओं का तेज समाहित हैं।
अजर, अमर, गुणनिधि,सुत होहु' यह वरदान माता जानकी जी ने हनुमान जी को अशोक वाटिका में दिया था। स्वयं भगवान् श्रीराम ने कहा था कि- 'सुन कपि तोहि समान उपकारी,नहि कोउ सुर, नर, मुनि,तुनधारी।' बल और बुद्धि के प्रतीक हनुमान जी राम और जानकी के अत्यधिक प्रिय हैं। इस धरा पर जिन सात मनीषियों को अमरत्व का वरदान प्राप्त है,उनमें बजरंगबली भी हैं। पवनसुत हनुमानजी भगवान् शिव के ग्यारहवें रुद्रावतार हैं। हनुमानजी का अवतार भगवान् राम की सहायता के लिये हुआ। हनुमानजी के पराक्रम की असंख्य गाथाएं प्रचलित हैं।

प्राचीन ग्रन्थों में वर्णित सात करोड़ मन्त्रों में श्री हनुमान जी की पूजा का विशेष उल्लेख है। श्री राम भक्त, रूद्र अवतार,सूर्य-शिष्य, वायु-पुत्र,केसरी-नन्दन, महाबल,श्री बालाजी के नाम से प्रसिद्ध तथा हनुमान जी पूरे भारतवर्ष में पूजे जाते हैं और जन-जन के आराध्य देव हैं। बिना भेदभाव के सभी हनुमान अर्चना के अधिकारी हैं। अतुलनीय बलशाली होने के फलस्वरूप इन्हें बालाजी की संज्ञा दी गई है। देश के प्रत्येक क्षेत्र में हनुमान जी की पूजा की अलग परम्परा है।

सभी भक्त अपनी-अपनी श्रद्धा के अनुसार अलग-अलग देवी-देवताओं की पूजा और उपासना करते है। परंतु इस युग में भगवान शिव के ग्यारवें अवतार हनुमान जी को सबसे ज़्यादा पूजा जाता है। इसी कारण हनुमान जी को कलयुग का जीवंत देवता भी कहा गया है।

इन्होंने जिस तरह से राम के साथ सुग्रीव की मैत्री करायी और फिर वानरों की मदद से राक्षसों का मर्दन किया,यह सर्वविदित है।

भक्त की हर बड़ी से बड़ी समस्या का समाधान हनुमान जी आसानी से कर देते है। संपूर्ण भारत देश में हनुमान जी के लाखों मंदिर स्थित है परंतु कुछ विशेषता के आधार पर हनुमान जी के प्रसिद्ध मंदिर भी है जहाँ भक्तों का सैलाब दिखाई देता है। इनमे से हर मंदिर की अपनी एक विशेषता है कोई मंदीर अपनी प्राचीनता की लिये फेमस है तो कोइ मंदीर अपनी भव्यता के लिए। जबकि कई मंदिर अपनी अनोखी हनुमान मूर्त्तियों के लिए, वैसे तो हनुमान जी के सिद्धपीठों की गणना नहीं की जा सकती है, फिर भी यहाँ पर कुछ प्रमुख सिद्धपीठों का संक्षिप्त विवरण दिया गया है।जिस किसी भी स्थान पर भक्तों की मनोकामना पूरी होती है,उस स्थान पर स्थित हनुमान जी को भक्त आस्था आप्लावित होकर अपना सिद्धपीठ मानते हैं।देश के दूरस्थ गाँवों एवं कस्बों में भी ऐसे मंदिर स्थित हैं जो कि भले ही राज्य या जिला-स्तर पर प्रसिद्ध नहीं हैं,पर भक्तजनों के लिए सिद्धपीठ हैं।

सभी धर्म प्रेमियोँ को मेरा यानि पेपसिह राठौङ तोगावास कि तरफ से सादर प्रणाम।

Tuesday, 3 February 2015

8-डुल्या मारुति, पूना, महाराष्ट्र (Dulya Maruti Temple, Pune, Maharashtra)



8-डुल्या मारुति, पूना, महाराष्ट्र
(Dulya Maruti Temple, Pune, Maharashtra)
पूना के गणेशपेठ में स्थित श्रीडुल्या पश्चिम मुख मारुति का मंदिर
श्रीडुल्या मारुति का मंदिर संभवत: 350 वर्ष पुराना है। पूना के गणेशपेठ में स्थित यह मंदिर काफी प्रसिद्ध है। संपूर्ण मंदिर पत्थर का बना हुआ है, यह बहुत आकर्षक और भव्य है। मूल रूप से डुल्या मारुति की मूर्ति एक काले पत्थर पर अंकित की गई है। यह मूर्ति पांच फुट ऊंची तथा ढाई से तीन फुट चौड़ी अत्यंत भव्य एवं पश्चिम मुख है। हनुमानजी की इस मूर्ति की दाईं ओर श्रीगणेश भगवान की एक छोटी सी मूर्ति स्थापित है। इस मूर्ति की स्थापना छत्रपति शिवाजी के गुरु श्री समर्थ रामदास स्वामी ने की थी, ऐसी मान्यता है। सभा मंडप में द्वार के ठीक सामने छत से टंगा एक पीतल का घंटा है, इसके ऊपर शक संवत् 1700 अंकित है।
समर्थ रामदास का जन्म
समर्थ रामदास का मूल नाम 'नारायण सूर्याजीपंत कुलकर्णी' (ठोसर) था। इनका जन्म महाराष्ट्र के औरंगाबाद (जजालना) जिले के जांब नामक स्थान पर रामनवमी के दिन मध्यान्ह में जमदग्नी गोत्र के देशस्थ ऋग्वेदी ब्राह्मण परिवार में शके 1533 सन 1608 में हुआ। समर्थ रामदास जी के पिता का नाम सूर्याजी पन्त था। वे सूर्यदेव के उपासक थे और प्रतिदिन 'आदित्यह्रदय' स्तोत्र का पाठ करते थे,कुल में 21 पीढ़ी से सूर्योपासना परंपरा थी। । वे गाँव के पटवारी (राजस्व अधिकारी)  थे लेकिन उनका बहुत सा समय उपासना में ही बीतता था। उनकी माता का नाम राणुबाई था। वे संत एकनाथ जी के परिवार से उनकी दूर की रिश्तेदार थी। वे भी सूर्य नारायण की उपासिका थीं।
समर्थ गुरु रामदास
सूर्यदेव की कृपा से सूर्याजी पन्त को दो पुत्र गंगाधर स्वामी और नारायण (समर्थ रामदास) हुए। समर्थ रामदास जी के बड़े भाई का नाम गंगाधर था। उन्हें सब 'श्रेष्ठ' कहते थे। वे अध्यात्मिक सत्पुरुष थे। उन्होंने 'सुगमोपाय ' नामक ग्रन्थ की रचना की है। मामा का नाम भानजी गोसावी था। वे प्रसिद्ध कीर्तनकार थे।
रामदास जी का बालपन
एक दिन माता राणुबाई ने नारायण (यह उनके बचपन का नाम था) से कहा, 'तुम दिनभर शरारत करते हो, कुछ काम किया करो। तुम्हारे बड़े भाई गंगाधर अपने परिवार की कितनी चिंता करते हैं!' यह बात नारायण के मन में घर कर गई। दो-तीन दिन बाद यह बालक अपनी शरारत छोड़कर एक कमरे में ध्यानमग्न बैठ गया। दिनभर में नारायण नहीं दिखा तो माता ने बड़े बेटे से पूछा कि नारायण कहाँ है।
उसने भी कहा, 'मैंने उसे नहीं देखा।' दोनों को चिंता हुई और उन्हें ढूँढने निकले पर, उनका कोई पता नहीं चला। शाम के वक्त माता ने कमरे में उन्हें ध्यानस्थ देखा तो उनसे पूछा, 'नारायण, तुम यहाँ क्या कर रहे हो?' तब नारायण ने जवाब दिया, 'मैं पूरे विश्व की चिंता कर रहा हूँ।'इस घटना के बाद नारायण की दिनचर्या बदल गई।
उन्होंने समाज के युवा वर्ग को यह समझाया कि स्वस्थ एवं सुगठित शरीर के द्वारा ही राष्ट्र की उन्नति संभव है। इसलिए उन्होंने व्यायाम एवं कसरत करने की सलाह दी एवं शक्ति के उपासक हनुमानजी की मूर्ति की स्थापना की। समस्त भारत का उन्होंने पद-भ्रमण किया। जगह-जगह पर हनुमानजी की मूर्ति स्थापित की, जगह-जगह मठ एवं मठाधीश बनाए ताकि पूरे राष्ट्र में नव-चेतना का निर्माण हो।
रामदास जी का तप (तपश्चर्या)
जब 12 वर्ष की आयु में विवाह की बात पर नारायण ने कहा, 'हमें आश्रम (गृहस्थी) करना नहीं।' माँ ने इसे भी बचपना समझ विवाह रचाया व आज्ञा दी, 'जा के वेदी पर खड़ा हो।'
नारायण ने आज्ञा तो मानी, परंतु ज्योंही, 'द्विज कहे सावधान 'वधु-वर्यो सावधान' घोष हुआ, विवाह के समय "शुभमंगल सावधान" में "सावधान" शब्द सुनकर वे विवाह मंडप से फुर्ती से भागा, ढूँढने पर भी न मिला और गोदातट पर बसी नासिक के टाकळी गाँव में जाकर भिक्षा माँग रहने लगा (1620)। उनका कार्यक्रम था प्रातः शुद्ध होकर जप, व्यायाम, भिक्षा व अध्ययन। विशेष यह कि किसी के शिष्य न थे।
गृहत्याग करने के बाद १२ वर्ष के नारायण नासिक के पास टाकली नाम के गाव को आए वहा नंदिनी और गोदावरी नदियोंका संगम है। टाकली नामक स्थान पर श्रीरामचंद्र की उपासना में संलग्न हो गए। उपासना में 12 वर्ष तक वे लीन रहे। यहीं उनका नाम "रामदास" पड़ा। इसी भूमि को अपनी तपोभूमि बनाने का निश्चय करके उन्होंने कठोर तप शुरू किया|वे प्रातः ब्राह्ममुहूर्त को उठकर प्रतिदिन १२०० सूर्यनमस्कार लगाते थे।
उसके बाद गोदावरी नदी में खड़े होकर राम नाम और गायत्री मंत्र का जाप करते थे।
दोपहर में केवल ५ घर की भिक्षा मांग कर वह प्रभु रामचंद्र जी को भोगलगाते थे ,उसके बाद प्रसाद का भाग प्राणियों और पंछियों को खिलने के बाद स्वयं ग्रहण करते थे।
दोपहर में वे वेद, वेदांत, उपनिषद्, शास्त्र ग्रन्थोंका अध्ययन करते थे, उसके बाद फिर नामजप करते थे, उन्होंने १३ करोड राम नाम जप १२ वर्षों में किया ।
समर्थ रामदास स्वामींनी गृहत्याग केला..श्रीक्षेत्र आसनगाव
ऐसा कठोर तप उन्होंने १२ वर्षों तक किया इसी समय में उन्होंने स्वयं एक रामायण लिखा यही पर प्रभु रामचन्द्र की जो प्रार्थनाये उन्होंने रची हैं वह वह 'करुणाष्टक' नाम से प्रसिद्ध है।
तप करने के बाद उन्हें आत्म साक्षात्कार हुआ, तब उनकी आयु २४ वर्षों की थी, टाकली में ही समर्थ रामदास जी प्रथम हनुमान का मंदिर स्थापन किया।
आत्मसाक्षात्कार होने के बाद समर्थ रामदास तीर्थयात्रा पर निकल पड़े 12 वर्ष तक वे भारतवर्ष का भ्रमण करते रहे। घुमते घुमते वे हिमालय आये, हिमालय का पवित्र वातावरण देखने के बाद मूलतः विरक्त स्वभाव के रामदास जी के मन का वैराग्यभाव जागृत हो गया।
अब आत्म साक्षात्कार हो गया, ईश्वर दर्शन हो गया, तो इस देह को धारण करने की क्या जरुरत है ?ऐसा विचार उनके मन में आया ,उन्होंने खुद को १००० फीट से मंदाकिनी नदी में झोंक दिया। लेकिन उसी समय प्रभुराम ने उन्हें ऊपर ही उठ लिया और धर्म कार्य करने की आज्ञा दी। कहा जाता है कि साधना के 12वें वर्ष में दैवी प्रेरणा से उन्होंने नदी में गोता लगाया, तो सिर बुरी तरह पत्थर से टकराया (घाव का चिह्न सदा माथे पर रहा), उसी पत्थर को बगल में दबाकर ऊपर आए, तो पत्थर राममूर्ति निकला। इसे आशीर्वाद मान मूर्ति स्थापना कर वे 1632 में देशाटनार्थ के लिए निकले। यह देशाटन भारत का सामाजिक, राजकीय व आर्थिक सर्वेक्षण था।
अपने शरीर को धर्म के लिए अर्पित करने का निश्चय उन्होंने कर दिया, तीर्थ यात्रा करते हुए वे श्रीनगर आए वहा उनकी भेंट सिखों के गुरु हरगोविंद जी महाराज से हुई गुरु हरगोविंद जी महाराज ने उन्हें धर्म रक्षा हेतु शस्त्र सज्ज रहने का मार्गदर्शन किया।
उस समय प्रजा पर होने वाले अत्याचार, अन्याय व अव्यवस्था व धर्मावलंबियों पर होने वाले हमलों का इसमें वर्णन है, जिसे पढ़ मन काँप उठता है। उन्होंने बद्रीकेदार में मठस्थापना की। हिमालय क्षेत्र में उन्हें श्रीनगर में सिखों के गुरु श्री हरगोविंदसिंहजी मिले, दोनों ने गहन मंत्रणा की। उन्होंने समर्थ रामदास को गढ़वाल की रानी कर्णावती से मिलाया। वार्तालाप में समर्थ का संकेत जान रानी ने कहा, 'गुरुदेव, इस पुण्य कार्य में हम गढ़वाली सदा कमर कस के तैयार हैं', रानी को समर्थ ने कहा 'तथास्तु' और गढ़वाल को मुगल कभी जीत न सके।
इसके उल्लेख हैं कि समर्थ रामदास अमृतसर स्वर्ण मंदिर में चार मास ठहरे थे। उनका उद्देश्य था भविष्य में मराठा शक्ति हेतु उ. भारत में मित्र ढूँढना। वैसे पंढरपुर (महा.) से पंजाब तक यात्रा में संत ज्ञानेश्वर व नामदेव (14वीं शताब्दी पूर्वार्ध) ने इस मैत्री का आध्यात्मिक पक्ष दृढ़ किया था। श्री गुरुग्रंथ साहेब में संत नामदेव, 'मुखबानी' (66 पद्य) हैं। इसी क्रम को बढ़ाते राजकीय सैनिक मैत्री योग भी बना। मराठों की सरहिंद (पंजाब) व अटक (पाक-अफ. सीमा) विजयों (1758) में सिखों ने मदद की। पालियत युद्ध (1761) में सरदार आलासिंह ने मराठों की मदद की थी।
समर्थ रामदास तथा गुरु हरगोविन्दजी
समर्थ रामदास ने उ. भारत में, मथुरा, द्वारका व बनारस में मठस्थापना की। उनके अयोध्या मठ के मुखिया विश्वनाथजी ब्रह्मचारी थे, जिन्होंने औरंगजेब के समय हुए राम जन्मभूमि संघर्ष में प्राण न्यौछावर किए। देशाटन पूर्ण कर समर्थ महाराष्ट्र लौटे (1644)। उन्होंने महाराष्ट्र में कई मठ बनाए। योग्य व्यक्तियों को मठाधीश बनाया, यहाँ तक कि परंपरा को भंग कर उन्होंने विधवाओं को भी मठाधीश बनाया! समर्थजी नें 350 वर्ष पहले संत वेणा स्वामी जैसी विधवा महिला को मठपति का दायित्व देकर कीर्तन का अधिकार दिया। 
समर्थ रामदास और शिवाजी महाराज
महाराष्ट्र में उन्होंने रामभक्ति के साथ हनुमान भक्ति का भी प्रचार किया। हनुमान मंदिरों के साथ उन्होंने अखाड़े बनाकर महाराष्ट्र के सैनिकीकरण की नींव रखी- जो राज्य स्थापना में बदली। संत तुकाराम ने स्वयं की मृत्युपूर्व शिवाजी को कहा कि अब उनका भरोसा नहीं अतः आप समर्थ में मन लगाएँ। तुकाराम की मृत्यु बाद शिवाजी ने समर्थ का शिष्यत्व ग्रहण किया (अनु. 1649-52)
समर्थ ने अपनी महान कृति 'श्रीदासबोध' से लेखन प्रारंभ किया (अनु. 1646)। गुरु-शिष्य संवादरूप इस ग्रंथ में 200 विषयों पर विवेचन है। आध्यात्मिकता के साथ इसमें व्यक्ति परीक्षा, गृहस्थी, व्यवहार, संगठन, राजनीति, कूटनीति, सावधानत, गुप्त संगठन, शक्तिसंचय व अंततः अत्याचारी शत्रु से राज्य छीन स्वयं का राज्य स्थापन करने का श्रेष्ठ विवेचन है। राजकीय/ सामाजिक कार्यार्थ यह श्रेष्ठ ग्रंथ है जो बताता है कि समर्थ संतरूप चाणक्य ही थे।
उनकी अन्य रचनाएँ हैं, 'मनोबोध श्लोक' (205 श्लोक), मारुति स्तोत्र, करुणाष्टक, राम व कृष्ण पर पद्य, आरतियाँ (प्रचलित मराठी गणेश आरती), रामदासी रामायण (अपूर्ण) हिन्दी में भी उनकी पद्य रचनाएँ हैं।
सज्जनगढ़ (सातारा) समर्थ स्थापित श्रीराम मूर्ती,

समर्थ सुख-दुख से परे थे परंतु एक प्रसंग ने उन्हें दुखी किया। पिता के सामने पुत्र की व गुरु के सामने शिष्य की मृत्यु दुर्भाग्य ही होती है। समर्थ के सामने ही शिवाजी की मृत्यु हुई और दुख तो तब हुआ जब उनके पुत्र संभाजी ने क्रोध से हत्याएँ कीं। यह जानकर उन्होंने संभाजी को पद्य में पत्र लिखकर, बताया कि बिगड़े प्रशासन को कैसे सुधारा जाए। उनकी मृत्यु (1682) पूर्व उन्होंने शिष्यों को कहा कि वे दुख न करें व 'श्रीदासबोध' को ही उनके स्थान पर मानें।
गुप्त कार्य में लगा व्यक्ति कैसा हो, इसके लिए उन्होंने कहा है, 'जाए वह स्थान कहे ना। कहे स्थान जाए ना। अपनी स्थिति अनुमाना। आने न दे।' समाज व राष्ट्र हेतु, आध्यात्मिकता के साथ, प्रपंच (गृहस्थी), सत्ता, संपत्ति, कूटनीति व राजनीति, प्रशासन व सूझबूझ की दृष्टि से, दासबोध के कुछ भाग चाणक्य की अर्थशास्त्र के समान है। यही रामदासजी के उपदेश आज भी देश के लिए अमूल्य हैं। जिनका हम सभी को पालन करना चाहिए।
भारत संतों की भूमि है। विदेशी आक्रमण द्वारा, धर्म संस्कृति संकट में आने पर संतों ने राज्य स्थापना का कार्य किया। उ. भारत में यह कार्य सिख गुरुओं व द. भारत में माधव विद्यारण्य स्वामी (विजयनगर राज्य स्थापना) व इस राज्य के पतन पश्चात, समर्थ रामदास ने किया।
शासन के विरुद्ध जनता को संघटित होने का उपदेश देते हुए वे घूमने लगे। समर्थ रामदास जी ने अपने शिष्योंके द्वारा समाज में एक चैतन्यदायी संगठन खड़ा किया। उन्होनें सतारा जिले में चाफल नाम के एक गाँव में भव्य श्रीराम मंदिर का निर्माण किया। यह मंदिर निर्माण केवल भिक्षा के आधार पर किया। कश्मीर से कन्याकुमारी तक उन्होंने 1100 मठ तथा अखाड़े स्थापित कर स्वराज्यस्थापना के लिए जनता को तैयार करने का प्रयत्न किया। 
समर्थ स्थापित श्रीराम मूर्ती,चाफळ
शक्ति एवं भक्ति के आदर्श श्री हनुमान जी कि मूर्तियां उन्होनें गाँव गाँव में स्थापित कि। आपने अपने सभी शिष्योंको विभिन्न प्रांतोंमें भेजकर भक्तिमार्ग तथा कर्मयोग कि सिख जनजन में प्रचारित करने कि आज्ञा कि। युवाओंको बलसम्पन्न करने हेतु आपने सूर्य नमस्कार का प्रचार किया। समर्थजी नें 350 वर्ष पहले संत वेणा स्वामी जैसी विधवा महिला को मठपति का दायित्व देकर कीर्तन का अधिकार दिया। समर्थ रामदास जी के भक्तों एवं अनुयायियोंको रामदासीकहते हैं। समर्थजी द्वारा स्थापित सम्प्रदाय को समर्थ सम्प्रदाय अथवा रामदासी सम्प्रदाय कहते हैं। जय जय रघुवीर समर्थ यह सम्प्रदाय का जयघोष है तथा श्रीराम जय राम जय जय राम यहजपमन्त्र है। समर्थ जी कि विचारधारा तथा कार्य का प्रभाव लोकमान्य तिलक, स्वातंत्र्यवीर सावरकर, डॉ॰ केशव बलिराम हेडगेवार आदि महान नेताओं पर था।
समर्थ रामदास स्वामीजी कि समाधी
उनके भक्तों में मुस्लिम भी थे, जिनकी कब्रें सज्जनगढ़ ( सातारा) में हैं। इसी प्रयत्न में उन्हें छत्रपति श्रीशिवाजी महाराज जैसे योग्य शिष्य का लाभ हुआ और स्वराज्यस्थापना के स्वप्न को साकार होते हुए देखने का सौभाग्य उन्हें अपने जीवनकाल में ही प्राप्त हो सका। उन्होंने शके 1603 में 73 वर्ष की अवस्था में महाराष्ट्र में सज्जनगढ़ नामक स्थान पर समाधि ली। यदि वे संत न होते तो द. भारत के 'चाणक्य' कहलाते। 


सभी धर्म प्रेमियोँ को मेरा यानि पेपसिह राठौङ तोगावास कि तरफ से सादर प्रणाम।


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