Sunday, 8 February 2015

पवन पुत्र हनुमान के जन्म की कहानी







            पवन पुत्र हनुमान के जन्म की कहानी 

रामभक्त हनुमान के जन्म की कहानी
ज्योतिषीयों के सटीक गणना के अनुसार हनुमान जी का जन्म 1 करोड़ 85 लाख 58 हजार 112 वर्ष पहले चैत्र पूर्णिमा को मंगलवार के दिन चित्र नक्षत्र व मेष लग्न के योग में सुबह 6.03 बजे हुआ था

हनुमान की माता अंजनि के पूर्व जन्म की कहानी
कहते हैं कि माता अंजनि पूर्व जन्म में देवराज इंद्र के दरबार में अप्सरा पुंजिकस्थला थींबालपन में वो अत्यंत सुंदर और स्वभाव से चंचल थी एक बार अपनी चंचलता में ही उन्होंने तपस्या करते एक तेजस्वी ऋषि के साथ अभद्रता कर दी थी । 
गुस्से में आकर ऋषि ने पुंजिकस्थला को श्राप दे दिया कि जा तू वानर की तरह स्वभाव वाली वानरी बन जा, ऋषि के श्राप को सुनकर पुंजिकस्थला ऋषि से क्षमा याचना मांगने लगी, तब ऋषि ने कहा कि तुम्हारा वह रूप भी परम तेजस्वी होगा
तुमसे एक ऐसे पुत्र का जन्म होगा जिसकी कीर्ति और यश से तुम्हारा नाम युगों-युगों तक अमर हो जाएगा, अंजनि को वीर पुत्र का आशीर्वाद मिला।
श्री हनुमानजी की बाल्यावस्था
ऋषि के श्राप से त्रेता युग मे अंजना मे नारी वानर के रूप मे धरती पे जन्म लेना पडा
इंद्र जिनके हाथ में पृथ्वी के सृजन की कमान है, स्वर्ग में स्थित इंद्र के दरबार (महल) में हजारों अप्सरा (सेविकाएं) थीं, जिनमें से एक थीं अंजना (अप्सरा पुंजिकस्थला) अंजना की सेवा से प्रसन्न होकर इंद्र ने उन्हें मनचाहा वरदान मांगने को कहा, अंजना ने हिचकिचाते हुए उनसे कहा कि उन पर एक तपस्वी साधु का श्राप है, अगर हो सके तो उन्हें उससे मुक्ति दिलवा दें। इंद्र ने उनसे कहा कि वह उस श्राप के बारे में बताएं, क्या पता वह उस श्राप से उन्हें मुक्ति दिलवा दें। 

अंजना ने उन्हें अपनी कहानी सुनानी शुरू की, अंजना ने कहा बालपन में जब मैं खेल रही थी तो मैंने एक वानर को तपस्या करते देखा, मेरे लिए यह एक बड़ी आश्चर्य वाली घटना थी, इसलिए मैंने उस तपस्वी वानर पर फल फेंकने शुरू कर दिए, बस यही मेरी गलती थी क्योंकि वह कोई आम वानर नहीं बल्कि एक तपस्वी साधु थे।    

मैंने उनकी तपस्या भंग कर दी और क्रोधित होकर उन्होंने मुझे श्राप दे दिया कि जब भी मुझे किसी से प्रेम होगा तो मैं वानर बन जाऊंगी। मेरे बहुत गिड़गिड़ाने और माफी मांगने पर उस साधु ने कहा कि मेरा चेहरा वानर होने के बावजूद उस व्यक्ति का प्रेम मेरी तरफ कम नहीं होगा अपनी कहानी सुनाने के बाद अंजना ने कहा कि अगर इंद्र देव उन्हें इस श्राप से मुक्ति दिलवा सकें तो वह उनकी बहुत आभारी होंगी। इंद्र देव ने उन्हें कहा कि इस श्राप से मुक्ति पाने के लिए अंजना को धरती पर जाकर वास करना होगा, जहां वह अपने पति से मिलेंगी। शिव के अवतार को जन्म देने के बाद अंजना को इस श्राप से मुक्ति मिल जाएगी।

इंद्र की बात मानकर अंजना धरती पर आईं और केसरी से विवाह - इंद्र की बात मानकर अंजना धरती पर चली आईं, एक शाप के कारण उन्हें नारी वानर के रूप मे धरती पे जन्म लेना पडा। उस शाप का प्रभाव शिव के अन्श को जन्म देने के बाद ही समाप्त होना था। और एक शिकारन के तौर पर जीवन यापन करने लगीं। जंगल में उन्होंने एक बड़े बलशाली युवक को शेर से लड़ते देखा और उसके प्रति आकर्षित होने लगीं, जैसे ही उस व्यक्ति की नजरें अंजना पर पड़ीं, अंजना का चेहरा वानर जैसा हो गया। अंजना जोर-जोर से रोने लगीं, जब वह युवक उनके पास आया और उनकी पीड़ा का कारण पूछा तो अंजना ने अपना चेहरा छिपाते हुए उसे बताया कि वह बदसूरत हो गई हैं। अंजना ने उस बलशाली युवक को दूर से देखा था लेकिन जब उसने उस व्यक्ति को अपने समीप देखा तो पाया कि उसका चेहरा भी वानर जैसा था।

अपना परिचय बताते हुए उस व्यक्ति ने कहा कि वह कोई और नहीं वानर राज केसरी हैं जो जब चाहें इंसानी रूप में आ सकते हैं। अंजना का वानर जैसा चेहरा उन दोनों को प्रेम करने से नहीं रोक सका और जंगल में केसरी और अंजना ने विवाह कर लिया।
केसरी एक शक्तिशाली वानर थे जिन्होने एक बार एक भयंकर हाथी को मारा था। उस हाथी ने कई बार असहाय साधु-संतों को विभिन्न प्रकार से कष्ट पँहुचाया था। तभी से उनका नाम केसरी पड गया, "केसरी" का अर्थ होता है सिंह। उन्हे "कुंजर सुदान"(हाथी को मारने वाला) के नाम से भी जाना जाता है।
पंपा सरोवर
अंजना और मतंग ऋषि - पुराणों में कथा है कि केसरी और अंजना ने विवाह कर लिया पर संतान सुख से वंचित थेअंजना अपनी इस पीड़ा को लेकर मतंग ऋषि के पास गईं, तब मंतग ऋषि ने उनसे कहा-पप्पा (कई लोग इसे पंपा सरोवर भी कहते हैं) सरोवर के पूर्व में नरसिंह आश्रम है, उसकी दक्षिण दिशा में नारायण पर्वत पर स्वामी तीर्थ है वहाँ जाकर उसमें स्नान करके, बारह वर्ष तक तप एवं उपवास करने पर तुम्हें पुत्र सुख की प्राप्ति होगी। 
(उग्र नरसिंह मंदिर)
अंजना को पवन देव का वरदान - अंजना ने मतंग ऋषि एवं अपने पति केसरी से आज्ञा लेकर तप किया था बारह वर्ष तक केवल वायु पर ही जीवित रही, एक बार अंजना ने शुचिस्नान करके सुंदर वस्त्राभूषण धारण किए। तब वायु देवता ने अंजना की तपस्या से प्रसन्न होकर उस समय पवन देव ने उसके कर्णरन्ध्र में प्रवेश कर उसे वरदान दिया, कि तेरे यहां सूर्य, अग्नि एवं सुवर्ण के समान तेजस्वी, वेद-वेदांगों का मर्मज्ञ, विश्वन्द्य महाबली पुत्र होगा।
मतंग रामायण कालीन एक ऋषि थे, जो शबरी के गुरु थे
अंजना को भगवान शिव का वरदान - अंजना ने मतंग ऋषि एवं अपने पति केसरी से आज्ञा लेकर नारायण पर्वत पर स्वामी तीर्थ के पास, अपने आराध्य शिव की तपस्या में मग्न थीं । शिव की आराधना कर रही थीं तपस्या से प्रसन्न होकर शिव ने उन्हें वरदान मांगने को कहा, अंजना ने शिव को कहा कि साधु के श्राप से मुक्ति पाने के लिए उन्हें शिव के अवतार को जन्म देना है, इसलिए शिव बालक के रूप में उनकी कोख से जन्म लें। 
 
कर्नाटक राज्य के दो जिले कोप्पल और बेल्लारी में रामायण काल का प्रसिद्ध किष्किंधा ...
तथास्तुकहकर शिव अंतर्ध्यान हो गए। इस घटना के बाद एक दिन अंजना शिव की आराधना कर रही थीं और दूसरी तरफ अयोध्या में, इक्ष्वाकु वंशी महाराज अज के पुत्र और अयोध्या के महाराज दशरथ, अपनी तीन रानियों के कौशल्या, सुमित्रा और कैकेयी साथ पुत्र रत्न की प्राप्ति के लिए, श्रृंगी ऋषि को बुलाकर 'पुत्र कामेष्टि यज्ञ' के साथ यज्ञ कर रहे थे।
यज्ञ की पूर्णाहुति पर स्वयं अग्नि देव ने प्रकट होकर श्रृंगी को खीर का एक स्वर्ण पात्र (कटोरी) दिया और कहा "ऋषिवर! यह खीर राजा की तीनों रानियों को खिला दो। राजा की इच्छा अवश्य पूर्ण होगी।" जिसे तीनों रानियों को खिलाना था लेकिन इस दौरान एक चमत्कारिक घटना हुई, एक पक्षी उस खीर की कटोरी में थोड़ा सा खीर अपने पंजों में फंसाकर ले गया और तपस्या में लीन अंजना के हाथ में गिरा दिया। अंजना ने शिव का प्रसाद समझकर उसे ग्रहण कर लिया।
हनुमान जी (वानर मुख वाले हनुमान जी) का जन्म त्रेता युग मे अंजना के पुत्र के रूप मे, चैत्र शुक्ल की पूर्णिमा की महानिशा में हुआ।  
हनुमान जी के जन्‍मस्‍थल से नीचे की ओर एक विहंगम दृश्‍य सर्जना कर्नाटक के बैल्‍लारी
अंजना के पुत्र होने के कारण ही हनुमान जी को अंजनेय नाम से भी जाना जाता है जिसका अर्थ होता है 'अंजना द्वारा उत्पन्न'
उनका एक नाम पवन पुत्र भी है। जिसका शास्त्रों में सबसे ज्यादा उल्लेख मिलता है। शास्त्रों में हनुमानजी को वातात्मज भी कहा गया है, वातात्मज यानी जो वायु से उत्पन्न हुआ हो।
   
हनुमान जी ने सूर्य को  निगला
शिशु हनुमान उगते सूर्य को फल समझकर उसे पकड़ने के लिये आकाश में उड़ने लगे -  हनुमान अद्भुत बलवान, पराक्रमी और सद्गुण सम्पन्न हैं, परन्तु ऋषियों के शाप के कारण इन्हें अपने बल का पता नहीं था। मैं आपको इनके विषय में सब कुछ बताता हूँ। इनके पिता केसरी सुमेरु पर्वत पर राज्य करते थे। उनकी पत्नी का नाम अंजना था। इनके जन्म के पश्चात् एक दिन इनकी माता फल लाने के लिये इन्हें आश्रम में छोड़कर चली गईं। जब शिशु हनुमान को भूख लगी तो वे उगते हुये सूर्य को फल समझकर उसे पकड़ने के लिये आकाश में उड़ने लगे। उनकी सहायता के लिये पवन भी बहुत तेजी से चला। उधर भगवान सूर्य ने उन्हें अबोध शिशु समझकर अपने तेज से नहीं जलने दिया। जिस समय हनुमान सूर्य को पकड़ने के लिये लपके, उसी समय राहु सूर्य पर ग्रहण लगाना चाहता था। हनुमानजी ने सूर्य के ऊपरी भाग में जब राहु का स्पर्श किया तो वह भयभीत होकर वहाँ से भाग गया। उसने इन्द्र के पास जाकर शिकायत की कि देवराज! आपने मुझे अपनी क्षुधा शान्त करने के साधन के रूप में सूर्य और चन्द्र दिये थे। आज जब अमावस्या के दिन मैं सूर्य को ग्रस्त करने के लिये गया तो मैंने देखा कि एक दूसरा राहु सूर्य को पकड़ने जा रहा है।

इन्द्र के वज्र प्रहार से उनका नाम हनुमान हो गया-राहु की बात सुनकर इन्द्र घबरा गये और राहु को साथ लेकर सूर्य की ओर चल पड़े। राहु को देखकर हनुमान जी सूर्य को छोड़कर राहु पर झपटे। राहु ने इन्द्र को रक्षा के लिये पुकारा तो उन्होंने हनुमान जी के ऊपर वज्र का प्रहार किया जिससे वे एक पर्वत पर जा गिरे और उनकी बायीं ठुड्डी टूट गई। हनुमान की यह दशा देखकर वायुदेव को क्रोध आया। उन्होंने उसी क्षण अपनी गति रोक ली। इससे कोई भी प्राणी साँस न ले सका और सब पीड़ा से तड़पने लगे। तब सारे सुर, असुर, यक्ष, किन्नर आदि ब्रह्मा जी की शरण में गये। ब्रह्मा उन सबको लेकर वायुदेव के पास गये। वे मृत हनुमान को गोद में लिये उदास बैठे थे। जब ब्रह्मा जी ने उन्हें जीवित कर दिया तो वायुदेव ने अपनी गति का संचार करके सब प्राणियों की पीड़ा दूर की। चूँकि इन्द्र के वज्र से हनुमान जी की हनु (ठुड्डी) टूट गई थी, इसलिये तब से उनका नाम हनुमान हो गया।
हनुमान जी के जन्‍मस्‍थल से नीचे की ओर एक विहंगम दृश्‍य कर्नाटक के बैल्‍लारी
फिर प्रसन्न होकर सूर्य ने हनुमान को अपने तेज का सौंवा भाग दिया। वरुण, यम, कुबेर, विश्वकर्मा आदि ने उन्हें अजेय पराक्रमी, अवध्य होने, नाना रूप धारण करने की क्षमता आदि के वर दिया। इस प्रकार नाना शक्तियों से सम्पन्न हो जाने पर निर्भय होकर वे ऋषि-मुनियों के साथ शरारत करने लगे। किसी के वल्कल फाड़ देते, किसी की कोई वस्तु नष्ट कर देते। इससे क्रुद्ध होकर ऋषियों ने इन्हें शाप दिया कि तुम अपने बल और शक्ति को भूल जाओगे। किसी के याद दिलाने पर ही तुम्हें उनका ज्ञान होगा। तब से उन्हें अपने बल और शक्ति का स्मरण नहीं रहा।
वालि और सुग्रीव के पिता ऋक्षराज थे। चिरकाल तक राज्य करने के पश्चात् जब ऋक्षराज का देहान्त हुआ तो वालि राजा बना। वालि और सुग्रीव में बचपन से ही प्रेम था। जब उन दोनों में बैर हुआ तो सुग्रीव के सहायक होते हुये भी शाप के कारण हनुमान अपने बल से अनजान बने रहे।
...................................................................................................................................................................................................................................

॥ हनुमज्जन्मकथनं नाम षष्ठः पटलः॥
पवन पुत्र हनुमान का जन्म ज्योतिषीयों के अनुसार

 ज्योतिषीयों के सटीक गणना के अनुसार हनुमान जी का जन्म 1 करोड़ 85 लाख 58 हजार 112 वर्ष पहले चैत्र पूर्णिमा को मंगलवार के दिन चित्र नक्षत्र व मेष लग्न के योग में सुबह 6.03 बजे हुआ था

इस धरा पर जिन सात मनीषियों को अमरत्व का वरदान प्राप्त है, उनमें बजरंगबली भी हैं। हनुमानजी का अवतार भगवान राम की सहायता के लिये हुआ। हनुमानजी के पराक्रम की असंख्य गाथाएं प्रचलित हैं। इन्होंने जिस तरह से राम के साथ सुग्रीव की मैत्री कराई और फिर वानरों की मदद से राक्षसों का मर्दन किया, वह अत्यन्त प्रसिद्ध है।
 

  ॐ श्री रुद्र रूपाय श्री महागणेशाय नमः
मैत्रेय उवाचभगवन्हनुमन्मंत्रप्रभावो भवतश्श्रुतः।
तस्योत्पत्तिं स्वरूपं च श्रोतुमिच्छाम्यहं प्रभो॥१॥
मैत्रेय बोलेभगवन्! हनुमान के मंत्रों का प्रभाव आपसे सुना है। उनके जन्म और स्वरूप के बारे मे सुनना चाहता हूँ।

हनुमन्नाम वा कोऽसौ कस्य पुत्रस्स कीदृशः।
किं कर्मा तस्य चोत्पत्तिः कथं ब्रहन्वदस्व मे॥२॥
हनुमान नाम वाले वह कौन हैं? किसके पुत्र हैं? कैसे हैं? उन्होंने क्या कर्म किये? और उनकी उत्पत्ति कैसे हुई? ब्रह्मन्! मुझे बतायें।

पराशर उवाचइतिहासं पुरा वक्ष्ये मैत्रेय शृणु तत्त्वतः।
छायानाम महासाध्वी तनूजा विश्वकर्मणः॥३॥
स तां ददौ भास्कराय सा न सेहे रवेः प्रभाम्।
पराशर बोलेमैत्रेय! मैं तुम्हें इतिहास बताऊँगा, ध्यान से सुनो। पिछले काल में विश्वकर्मा की महासाध्वी छाया नाम की पुत्री हुई। विश्वकर्मा ने पुत्री का विवाह सूर्य से किया परन्तु वह सूर्य की प्रभा को सहन न कर पाई।

मात्रा पृष्टावदत्कन्या दुर्गमा पति सन्निधिः॥४॥
मातर्ममाभूदधुना तस्य तीक्ष्णकरेण वै।
पुत्रिकावचनं श्रुत्वा सावदत्स्वपतेः प्रसूः॥५॥
भार्याया वचनं श्रुत्वा विश्वकर्मा प्रभाकरम्।
शाणतस्तं स्वल्पप्रभं चक्रे सकरदीधितम्॥६॥
माता के द्वारा पूछे जाने पर कन्या ने कहा, 'हे माता! सूर्य की तीक्ष्ण किरणों के कारण मेरे लिए पति के समीप जाना कठिन हो गया है'। पुत्री के वचन सुनकर माता ने अपने पति को बताया। अपनी भार्या के वचन सुनकर विश्वकर्मा ने अपने आरे से सूर्य की तीव्र किरणों को मंद कर दिया।

भानोच्छिन्नकरच्छायात्कन्या जाता सुवर्चला।
ब्रह्मादयो लोकपालास्तत्सौन्दर्याद्विसिष्मिरे॥७॥
सूर्य की मंद किरणों की छाया से सुवर्चला नाम की कन्या का जन्म हुआ। ब्रह्मा आदि लोकपाल उसके सौन्दर्य से विस्मित हो गए।

ब्रह्माणं परिपप्रच्छुर्देवा इंद्रपुरोगमाः।
एनां धृत्वा पतिः को वा भूयाद्ब्रह्मन्वदस्व नः॥८॥
इन्द्र आदि देवताओं ने उस कन्या को उठाकर ब्रह्मा से पूछा, 'हे ब्रह्मन्! इसका पति कौन होगा, हमें बतायें'

ब्रह्मोवाचईश्वरस्य महत्तेजो हनुमान्दिवि भास्करम्।
फलबुध्यातु गृह्णीयात्तस्य भार्या भविष्यति॥९॥
ब्रह्मा बोलेईश्वर का महातेज हनुमान, आकाश में सूर्य को फल समझेंगें और उसे पकडेंगे। यह उनकी भार्या होगी।

राक्षसैः पीडिता देवा ब्रह्माणं शरणं ययुः।
बाधन्ते राक्षसा नित्यं ब्रह्मन्लोकानृषींश्च नः॥१०॥
तेषां कुरु वधोपायस्त्वं हि नः परमागतिः॥११॥
राक्षसों के द्वारा पीड़ित देवतागण ब्रह्मा की शरण में गए। (उन्होंने ब्रह्मा से कहा) हे ब्रह्मन्! राक्षसगण नित्य लोगों को, ऋषियों को और हमें कष्ट दे रहे हैं। उनके वध का उपाय करें। आप ही हमारा परम आश्रय हैं।

इत्युक्तः त्राहतान्देवान्मया न ज्ञायते वधः।
शंकरं परिपृच्छामो गच्छामो रजताचलम्॥१२॥
ऐसा कहे जाने पर ब्रह्मा ने त्रासित देवताओं से कहा, 'राक्षसों के वध का उपाय मुझसे नहीं जाना जा रहा। हम सब कैलाश जायेंगे और शंकर से पूछेंगे।'

तत्र गत्वा महादेवमूचुस्ते सपितामहाः।
राक्षसानां वधोपायं कुरु रुद्र महाप्रभो॥१३॥
वहाँ जाकर पितामह सहित उन देवताओं ने महादेव से कहा, 'हे रुद्र! हे महाप्रभो! राक्षसों के वध का उपाय करें।'

शंकर उवाचनरनारायणं देवमार्तानां च परायणम्।
तिष्ठंतं परमक्षेत्रे नित्यं बदरिकाश्रमे॥
तं पृच्छामः सुरश्रेष्ठा गच्छामस्तत्र माचिरम्॥१४॥
शंकर बोलेहे सुरश्रेष्ठों! परमक्षेत्र बदरिकाश्रम में नित्य निवास करने वाले, पीड़ितों के आश्रय देवाता नरनारायण को हम सब पूछेंगे। विना बिलम्ब के हम सब वहाँ जायेंगे।

ब्रह्मेशादिसुरास्सर्वे नरनारायणं प्रभुम्।
नमस्कृत्य जगन्नाथं पप्रच्छुरिदमादरात्॥१५॥
ब्रह्मा, शिव आदि सभी देवताओं ने जगन्नाथ नरनारायण प्रभु को नमस्कार करके आदरपूर्वक यह पूछा।

बाधन्ते राक्षसा नित्यं नरनारायण प्रभो।
एतेषां तु वधोपायं क्षिप्रं कर्तुमिहार्हसि॥१६॥
हे नरनारायण! हे प्रभो! राक्षसगण नित्य हमें कष्ट पहुँचा रहे हैं। आपको शीध्र ही इनके वध का उपाय करना चाहिए।

स मुहूर्तमिव ध्यात्वा प्रोवाच सकलान्सुरान्।
भविष्यति न संदेहो राक्षसानां वधस्सुराः॥१७॥
क्षणभर ध्यान करके उन्होंने सभी देवताओं से कहा, 'हे सुरगणों! राक्षसों का वध होगा, इसमें कोई संदेह नहीं है।'

इत्युक्त्वा स्वात्मनस्तेजस्समाकृष्य जनार्दनः।
ब्रह्मणश्च सुराणां च तेजसा साकमीशितुः॥१८॥
पिंडीकृत्य ददौ रुद्र पपौ सर्वामरात्मकम्।
एसा कहकर जनार्दन ने अपने तेज को निकाला और ब्रह्म और देवताओं के तेज से, साथ ही शिव के भी तेज के साथ, उसका एक पिंड बनाकर दिया। शिव ने सभी देवताओं के तेज से निर्मित उस पिंड को पी लिया।

अथोवाच हरिर्व्यक्तिरेतत्तेजोद्भवस्सुराः॥१९॥
हरं त्यक्त्वा सुरास्सर्वे गच्छतेति यथागतम्॥२०॥
इसके पश्चात् विष्णु ने कहा, 'हे देवताओं! इस तेज से उत्पन्न व्यक्ति (सभी असुरों का वध करेगा)। शिव को छोड़कर सभी देवता जैसे आए थे वैसे ही लौट जाऐं।'

ततः काले महादेवः पर्यटन्पृथिवीमिमाम्।
पार्वतीसहितश्श्रीमान्वेंकटाख्यं गिरिं गतः॥२१॥
तत्पश्चात् कुछ समय बाद पृथिवी पर पर्यटन करते हुए महादेव, पार्वती के साथ, वेंकट नाम के पर्वत पर पहुँचे।

नित्यं सन्निहितो यत्र श्रीनिवासस्सतां गतिः।
लभंते पौरुषानर्धान्यस्मिन्पंडितपामराः॥२२॥
जहाँ सत्पुरुषों के आश्रय श्रीनिवास नित्य विद्यमान रहते हैं। जहाँ पंडित और पामर जन आधा पुरुषार्थ प्राप्त करते हैं।

तौ तत्र दंपती चैके शेषाख्ये चित्रकानने।
शेरतुः परमामोदे निर्मलोदसरिद्वरे॥२३॥
वहाँ दो दंपती, शेष नाम के एक सुन्दर वन में, निर्मल जल से परिपूर्ण नदी के किनारे, परम प्रसन्नता के भाव में शयन कर रहे थे।

एकदा परमप्रीता पार्वती पतिदेवता।
क्रीडंतं सुरतासक्तं कपियुग्मं ददर्श ह॥२४॥
एक समय परम मुदित अवस्था में पति को देवता मानने वाली पार्वती ने रति में आसक्त, क्रीडा करते हुए बंदर के जोड़े को देखा।

ततस्सा ह्रीमती बाला महादेवस्य पश्यतः।
पुष्पसांद्रेषु कुंजेषु तदा रंतुं मनोदधे॥२५॥
तब महादेव के देखते हुए, लज्जा भाव से पार्वती ने घने पुष्पों के झाड़ में रमण करने का विचार बनाया।

सर्वज्ञस्तदभिप्रायं ज्ञात्वा स कपिरूपधृत्।
रमयामास तां देवीं कपिरूपधरां शिवाम्॥२६॥
सर्वज्ञ शंकर ने पार्वती का अभिप्राय जानकर कपि का रूप धारण किया और कपि रूप धारण कीं हुईं देवी पार्वती के साथ रमण किया।

सहस्राब्दप्रमाणेन क्रीडित्वा स महाद्युतिः।
तत्तेजः पार्वतीगर्भे निधाय विरराम ह॥२७॥
सहस्र वर्षों तक क्रीडा करके महातेजस्वी शंकर उस तेज को पार्वती के गर्भ में स्थापित करके रुक गए।

अग्नौ चिक्षेप तत्तेजः पार्वती धारणाक्षमा।
स चाप्यशक्तस्तद्वायौ निक्षिपन्विससर्ज ह॥२८॥
उस तेज को धारण करने मे अक्षम पार्वती ने उसे अग्नि में फेंक दिया। अग्नि ने भी अक्षम होकर उसे उपर की ओर फेंक कर वायु में विसर्जित कर दिया।

तस्मिन्केसरिणो भार्या कपिसाध्वी वरांगना।
अंजनापुत्रमिच्छंती महाबलपराक्रमम्॥२९॥
तपश्चचार सुमहन्नियतेंद्रियमानसा।
उस समय केसरी की सुन्दर वानरसाध्वी पत्नी अंजना, महाबली और पराक्रमी पुत्र की इच्छा करती हुई अपने मन और इंद्रियों को नियमित कर महान तप कर रही थी।

तस्यै वायुः प्रसन्नात्मा प्रत्यहं फलमर्पयन्॥३०॥
भक्षार्थमेकदा तस्यास्तत्तेजश्चार्पयत्करे।
फलबुध्या तु तत्तेजस्साप्यभक्षयदंगना॥३१॥
वायुदेव प्रसन्न होकर प्रतिदिवस आहार के लिए उसे फल दिया करते थे। एक बार उन्होंने वह तेज उसके हाथों में अर्पित किया। उस स्त्री ने उस तेज को फल समझकर खा लिया।

नाति दीर्घेण कालेन चांजना पतिदेवता।
स्वांगेषु गर्भचिह्नानि सा दृष्ट्वा ह्रीमना ह्यभूत्॥३२॥
थोड़े समय में ही, अपने पति को देवता मानने वाली अंजना, अपने शरीर में गर्भ के चिह्न देखकर लज्जित हो गईं।

विस्मयाविष्टचित्तां तां व्रतभंगविशंकिताम्।
ध्यायन्तीं भयवित्रस्तामाभष्याहाशरीरिणी॥३३॥
विस्मय भाव से परिपूर्ण, व्रत के भंग होने की शंका से अभिभूत, भय से विह्वल, ध्यान करती हुई अंजना को सम्बोधित कर अशरीर वाणी (आकाशवाणि) ने कहा।

माभूत्ते व्रतभंगोऽयं माविषीद वरानने।
देवप्रसादात्ते गर्भे महाव्यक्तिर्भविष्यति॥३४॥
हे वरानने! तुम्हारा यह व्रत भंग नहीं हुआ है। विषाद मत करो। ईश्वर की कृपा से तुम्हारे गर्भ में एक महापुरुष आयेगा।

एवमुक्ता तु सा देवी मुदा परमया युता॥३५॥
एसा कहे जाने पर वह देवी अत्यंत प्रसन्न हुईं।
वैशाखे मासि कृष्णायां दशमी मंदसंयुता।
पूर्वप्रोष्ठपदायुक्ता कथा वैधृतिसंयुता॥३६॥
तस्यां मध्याह्नवेलायां जनयामास वै सुतम्।
वैशाख मास में कृष्णपक्ष की दशमी को जब चन्द्रमा पूर्वप्रोष्ठ नक्षत्र में था उस दिन मध्याह्न समय पर अंजना ने पुत्र को जन्म दिया।

महाबलं महासत्वं विष्णुभक्तिपरायणम्॥३७॥
सर्वदेवमयं वीरं ब्रह्मविष्णुशिवात्मकम्।
वेदवेदान्ततत्त्वज्ञं सर्वविद्याविशारदम्॥३८॥
सर्वब्रह्मविदां श्रेष्ठं सर्वदर्शनसम्मतम्।
(वह बालक) महाबलशाली, बड़े शरीर का, विष्णु की भक्ति में परायाण, सभी देवताओं का अंश होने से सभी देवताओं के रूप वाला, वीर, ब्रह्माविष्णुशिवात्मक, वेद और वेदान्त को तत्त्व से जानने वाला, सभी विद्याओं मे विशारद, सभी ब्रह्मविदों में श्रेष्ठ एवं सभी दर्शनों का ज्ञाता था।

माणिक्यकुण्डलधरं दिव्यपट्टाम्बरान्वितम्॥३९॥
कनकाचलसंकाशं पिंगाक्षं हेममालिनम्।
स्वर्णयज्ञोपवीतं च मणिनूपुरशोभितम्॥४०॥
ध्वजवज्रांशुकच्छत्रं पद्मरेखांघ्रिसंयुतम्।
दीर्घलांगूलसहितं दीर्घकायं महाहनूम्॥४१॥
(वह बालक) माणिक्य और कुण्डल धारण किये हुए, दिव्य वस्त्र पहने हुए, स्वर्ण पर्वत मेरु के समान आभा बाला, भूरि आँखों वाला, स्वर्ण माला पहने हुए, स्वर्ण यज्ञोपवीत धारण किये हुए, मणियों से जड़ित नूपुर पहने हुए, ध्वजा और चित्रित वस्त्र से बने छत्र के साथ, पैरों मे पद्मरेखा के साथ, लम्बी पूँछ के साथ, दीर्घ काया वाला और बड़ी हनू वाला था।

कौपीनं कटिसूत्राभ्यां विराजितं महाभुजम्।
आश्चर्यभूतं लोकानां वज्रसंहननं कपिम्॥४२॥
सर्वलक्षणसंपन्नं किरीटकनकांगदम्।
प्रभयामितया विष्णोरवतारमिवादरम्॥४३॥
(वह बालक) दो कटिसूत्र से बंधी हुई कौपीन से विराजित, दीर्घ भुजाओं वाला, वज्र के समान कठोर शरीर वाला, सभी लोगों को आश्चर्यचकित करने वाला, सभी लक्षणों से सम्पन्न, स्वर्ण मुकुट और अंगद के साथ, विष्णु के अवतार के समान अमित आभा से सम्पन्न वानर था।

पपात पुष्पवृष्टिश्च नेदुर्दुंदुभयो दिवि।
ननृतुर्देवगंधर्वास्तुष्टुवुस्सिद्धचारणाः।
ववौ वायुस्सुखस्पर्शस्सरितो निर्मलोदकाः ॥४४॥
पुष्पों की वृशष्टि हुई, आकाश में दुंदुभियाँ बजीं, देवताओं और गंधर्वों ने नृत्य किया, सिद्धों और चारणों ने हनुमान की स्तुति की, सुखद वायु बही और नदियाँ निर्मल जल से परिपूर्ण हो गईं।

यदांजना केसरिधर्मपत्नी ह्यसूत बालं कपिसार्वभौमम्।
प्रदक्षिणाकारशिखं मुनीनां तदैव वह्नित्रितयं विरेजे ॥४५॥
जब केसरी की धर्मपत्नी अंजना ने सबपर राज करने वाले वानर पुत्र को जन्म दिया तब मुनियों की दक्षिण की ओर मुड़ी शिखाऐं विराजमान होने लगीं। उसी समय तीन प्रकार के यज्ञ भी होने लगे।

प्रसूति गंधानिलसंभृतेषु वनेषु मत्ता मकरंदनिर्झरैः।
मिलिंदसंघा विचरंति सर्वतः सकोरकैः पल्लवितद्रुमेषु॥४६॥
जन्म के उपरान्त, कमल और कमल की कोंपलों से आच्छादित नदियाँ, सुगंघ से भरी वायु और पुष्पित वृक्षों से भरे वनों में मत्त-भाव से भौंरों के संघ सभी जगह विचरण कर रहे थे।

पतंति रत्नानि सुरेतराणां किरीटकोटिग्रथितान्यकांडे।
तदंगना मानसगह्वरेषु सगर्भकंपं भयमाविवेश॥४७॥
असुरों के अनेक मुकुटों के साथ रत्न अचानक आकाश से गिर रहे थे। उसे देखकर अंजन के मन-मस्तिषक में भीतर तक कम्पित कर देने वाला भय भर गया।

ततः प्रोवाच तां बालश्चतुष्पंचदिनांतरे।
अमायां मातरं दृष्ट्वा आहारो मे प्रदीयताम्॥४८॥
चार-पाँच दिनों के बाद उस बालक ने माता को देखकर कहा कि मुझे आहार दिया जाए।

इत्युक्त्वा प्राह तं देवी लालयंती सुतं सती।
सुपक्वं च फलं सूनो यत्रकुत्रापि भुज्यताम्॥४९॥
एसा कहे जाने पर वह सती, पुत्र को लालयित करती हुई बोली, 'हे पुत्र! जहाँ-तहाँ कोई पका फल मिले उसे खा लो।'

आंजनेयः प्रहृष्टात्मा दिवमुपेत्य वेगतः।
शिशुरुद्यंतमादित्यं फलबुध्या गृहीतवान्॥५०॥
शिशु आंजनेय हृष्ट भाव से वेग से आकाश की ओर उड़े और उगते हुए सूर्य को फल समझकर उसे पकड़ लिया।

मुखेन गलितं भानुं दृष्ट्वा कोपात्पुरंदरः।
चिंतयामास को न्वेष महासत्वः प्रदृश्यते॥५१॥
उसके मुख में सूर्य को देखकत क्रोध से इन्द्र ने विचार किया के यह कोन महाशक्तिशाली दिख रहा है।

इति विस्मयमापन्नो वज्रमुद्यम्य वृत्रहा।
बाले चिक्षेप रोषाच्च रोम्णा वज्रमपोधयत्॥५२॥
इस प्रकार विस्मय से भरे इन्द्र ने वज्र उठाकर बालक पर क्रोध से फेंका। उस बालक ने अपनी पूँछ से वज्र को रोक दिया।

मोघं तत्कुलिशं दृष्ट्वा ब्रह्मणोऽस्त्रमयोजयत्।
तच्चापि रोम्णा चिक्षेप विस्मिताश्चाभवन्सुराः॥५३॥
उस वज्र को व्यर्थ देखकर इन्द्र ने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। उसे भी बालक ने पूँछ से पटक दिया। उह देखकर सभी देवता अत्यंत विस्मित हुए।

ततस्तं प्रार्थयांचक्रुः पितामहपुरोगमाः अंजनासुप्रजा वीर पार्वतीश्वरसंभवः।
समर्थोऽसि महावीर महाबल पराक्रमः नराणां च सुराणां च ऋषीणां च हिताय वै
जगत्प्राणकुमारस्त्वमवतीर्णोऽसि भूतले।॥५४॥
तब पितामह को सामने रखकर सभी देवताओं ने बालक से प्रर्थना की, 'हे अंजना के सुपुत्र! हे वीर! तुम पार्वती और शिव के पुत्र हो। तुम समर्थ हो। हे महावीर! हे महाबल! मानवों, देवताओं और ऋषियों के हित के लिए तुम पृथिवी पर अवतीर्ण हुए हो। तुम पराक्रमी और जगत के प्राण वायु के पुत्र हो।'

सत्क्रिया न प्रवर्तते वेदोक्ताः क्रतवस्तथा।
त्यज सूर्यमिति प्रोक्तस्स मुमोच प्रभाकरम्॥५५॥
'सत्क्रियायें और वैदिक यज्ञ सूर्य के बिना सम्पन्न नहीं हो पा रहे हैं। अतः सूर्य को मुक्त कर दो।' एसा कहे जाने पर उसने सूर्य को मुक्त कर दिया।

एतदाश्चर्यमालोक्य कुलिशं मेघवाहनः।
समर्थमपि चापल्यात्क्रीडासक्तं शिशुं कपिम्।
हनौ च चिक्षेप वेगेन स पपात शिलातले॥५६॥
इस आश्चर्य को देखकर इन्द्र ने, समर्थ होते हुए भी, चपलता से, वज्र को अतिवेग से क्रीडा में आसक्त बालक के हनु पर फेंक दिया। वह बालक शिला के तल पर गिर पड़ा।

मूर्छितं बालकं दृष्ट्वा वायुः परमकोपनः।
प्राणास्सर्वशरीरेषु निगृह्य न चचाल ह॥५७॥
बालक को मूर्छित देखकर वायुदेव परमक्रोध से भर गए और उन्होंने सभी प्राणियों के शरीर से प्राण वायु को खींचकर चलना बन्द कर दिया।

प्राणेषु निगृहितेषु न प्रवृत्ताः क्रियास्ततः।
अचेतनवदत्यंतसंमूढमभवज्जगत्॥५८॥
प्राण खिंच जाने पर सभी क्रियाएँ बन्द हो गईं। सम्पूरण जगत अचेतन और संमूढ हो गया।

ततो देवास्सगंधर्वाः सिद्धाश्च परमर्षयः।
ब्रह्माविष्णुश्च शंभुश्च शक्रश्चापि समागताः॥५९॥
तब गंधर्वों के साथ देवतागण, सिद्धगण, परम ऋषिगण, ब्रह्मा, विष्णु, शिव और इन्द्र एकत्रित हुए।

वरैस्तं छन्दयामासुर्वायुं विबुधदुर्लभैः दीर्घमायुबलं शौर्य आरोग्यं चाप्यधृष्यताम्।
बुद्धिं विद्यास्तपस्तेजो वाक्पटुत्व प्रसन्नताम् चातुर्यं धैर्यवैराग्ये विष्णुभक्तिं कृपालुताम्।
परनारीषु वैमुख्यमपचारसहिष्णुताम्अजेयत्वं च सर्वास्त्रैः सर्वैर्देवासुरैरपि।॥६०॥

वायुपुत्र को विबुधों को भी जो दुर्लभ हैं, एसे वरदानों से आच्छादित कर दिया। दीर्घायु, बल, शौर्य, आरोग्य, पराजयहीनता, बुद्धि, विद्या, तप, तेज, वाक्पटुता, प्रसन्नता, चतुरता, धैर्य, वैराग्य, विष्णुभक्ति, कृपालुता, परनारी से विमुखता, अपचार सहन करने की क्षमता, सभी अस्त्रों और सभी देवताओं और असुरों से अजेयता।

एतानन्यांश्च कल्याणवरान्दत्वा ययुस्सुरा।
ततस्तुष्टावांजनेयं ब्रह्मलोकपितामहः॥६१॥
यह और अन्य कल्याणकारी वरदान देकर देवता लौट गए। तब पितामह नें आंजनेय की स्तुति की।

ब्रह्मोवाचसाक्षाद्विष्णुरिव श्रीमान्देवानुद्धारयिष्यसि।
सर्वराक्षससंहारं करिष्यसि यथा हरः॥६२॥
ब्रह्मा बोलेतुम साक्षात् श्रीमान् विष्णु की तरह देवताओं का उद्धार करोगे और शिव की तरह सभी राक्षसों का संघार करोगे।

लंकादैत्यवधं कृत्वा रामकार्यपरायणः।
संजीवनाचलं नीत्वा लक्ष्मणं जीवयिष्यसि॥६३॥
तुम राम का कार्य करने में परायण, लंका में राक्षसों का वध करके, संजीवनि औषधी वाले पर्वत को लाकर लक्ष्मण को जीवित करोगे।

सीताप्रवृत्तिमानीया रामं संतोषयिष्यसि त्वं बुद्धिमान्महाशूरो महाबलपराक्रमः।
भवानजेयस्सर्वास्त्रैः तथापि प्रार्थनान्मम अंगीकार्यः त्वया वीर क्षणं ब्रह्मास्त्रबंधनम्॥६४॥
तुम सीता की खबर लाकर राम को संतोष दोगे। तुम बुद्धिमान, महाशूरवीर, महाबली और पराक्रमी हो। तुम सभी अस्त्रों से अजेय हो फिर भी हे वीर! मेरी प्रार्थना से तुमहें क्षणभर के लिए ब्रह्मास्त्र का बंधन स्वीकार करना होगा।

महादेवप्रभावाद्धि रुद्रस्यामिततेजसः।
तेजसोऽपि सुराणां त्वमैश्वरं तेज ऊर्जतम्॥६५॥
महादेव के प्रभाव के कारन तुम रुद्र के अमित तेज हो। देवताओं के तेज के कारण तुम ईश्वरीय तेज और ऊर्जा से सम्पन्न हो।

पार्वतीगर्भसंभूतेः पार्वतीगर्भनामवान्।
अग्निना धार्यमाणत्वादग्निगर्भो भवान्भवेत्॥६६॥
पार्वती के गर्भ से जन्म लेने के कारन तुम पार्वतीगर्भ नाम वाले होगे। अग्नि के द्वारा धारित किये जाने के कारण तुम अग्निगर्भ होगे।

वायुप्रसादजननाद्वायुपुत्रो निगद्यसे।
अंजनागर्भजननादांजनेयस्ततो भवान्॥६७॥
वायुदेव की अनुकम्पा से जन्म प्राप्त करने के कारण वायु पुत्र कहे जाओगे। अंजना के गर्भ से जन्म लेने के कारण आंजनेय कहलाओगे।

केसरिक्षेत्रजन्यत्वात्पुत्रः केसरिणः कपेः।
हनूवज्रप्रहाराद्धि हनुमानिति नाम ते॥६८॥
केसरि के राज्य में जन्म लेने के कारण तुम वानर केसरी के पुत्र और हनु पर वज्र के प्रहार के कारण हनुमान नाम से जाने जाओगे।

ब्रह्मविष्णुशिवांशत्वात्त्रिमूर्तिरिति विश्रुतः।
सर्वदेवांशसंभूतेः सर्वदेवमयः स्मृतः॥६९॥
ब्रह्मा, विष्णु और शिव के अंश होने के कारण त्रिमूर्ति नाम से जाने जाओगे। सभी देवताओं के अंश से जन्म लेने के कारन सर्वदेवमय भी कहे जाओगे।

हनूमत्पूजया तस्मात्पूजिताः सर्वदेवताः।
प्रतिग्रामनिवासश्च भूयाद्रक्षोनिवारणे॥७०॥
इसलिए हनुमान की पूजा से सभी देवताओं की पूजा हो जाएगी। तुम्हारा राक्षस निवारण के लिए हर ग्राम मे निवास होगा।

इत्युक्त्वा लोकनाथोऽपि तत्रैवांतरधीयत॥७१॥
एसा कहकर लोकनाथ भी वहीं पर अंतर्धान हो गए।

आंजनेयस्ततः काले ब्रह्मचर्यपरायणः समर्थोऽपि महातेजः संपश्यन्लोकसंग्रहम्।
सूर्यमंडलमुपेत्य वेदाध्ययनकारणात् सप्रश्रयमुवाचेदं नमस्कृत्य दिवाकरम्॥७२॥
तब, समय आने पर, ब्रह्मचर्य में परायण, महातेजस्वी, समर्थ होने पर भी लोककल्याण को ध्यान में रखकर, वेदों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए सूर्यमंडल पहुँचे और आदरसहित सूर्यदेव को नमस्कार करके उनसे यह कहा।

सांगोपनिषदो वेदान्मम वक्तुं त्वमर्हसि।
रविः प्रोवाचांजनेयमवकाशो न विद्यते।ईश्वरस्य वशे तिष्ठन्भ्रमामीह तदाज्ञया॥७३॥
'आप वेद और उनके अंग उपनिष्दों को मुझे बताऐं।' सूर्यदेव बोले, 'मेरे पार अवकाश नहीं है। मैं ईश्वर के वश में रहकर उनकी आज्ञा से यहाँ भ्रमण करता हूँ।'

इत्युक्तो हनुमान्कोपान्निरुन्धे तस्य पद्धतिम्।
त्वमेवोपाय वक्तेति सांत्वयामास तं रविः॥७४॥
एसा कहे जाने पर हनुमान ने क्रोध में आकर सूर्यदेव का मार्ग रोक दिया। तुम ही उपाय बताओ, एसा कहकर सूर्यदेव ने उसे सांत्वना दी।

सूर्योन्मुखं पृष्ठगतो हनूमानेकवासरे। इंद्रव्याकरणं सूर्यात् धारयश्च महात्मनः॥७५॥
सूर्यदेव के पीछे जाकर, उनके उन्मुख होकर महात्मन् हनुमान ने सूर्यदेव से एक दिन में इंद्रव्याकरण का ज्ञान धारण किया।

ततो हनूमानेकं स्वं पादं कृत्वोदयाचले अस्ताद्रावेक पादं च तिष्ठन्नभिमुखो रवेः।
सांगोपनिषदो वेदानवाप्य कपिपुंगवः भास्करं तोषयामास सर्वविद्याविशारदः॥७६॥
इसके बाद वानरवीर, सभी विद्याओं मे निपुण, हनुमान ने अपना एक पैर उदयाचल पर और एक पैर अस्ताचल पर रखकर, सूर्यदेव के अभिमुख होकर, उपनिषदों सहित वेदों का ज्ञान प्राप्त करके सूर्यदेव को प्रसन्न कर दिया।

तस्य बुद्धिं च विद्यां च बलशौर्यपराक्रमान्।
विचार्य तस्मै प्रददौ स्वस्य कन्यां सुवर्चलाम्॥७७॥
उसकी बुद्धि, विद्या, बल, शौर्य और पराक्रम पर विचार करके सूर्यदेव ने अपनी कन्या सुवर्चला को हनुमान को प्रदान किया।

तामुद्वह्य महातेजा हनुमान्मारुतात्मजः।
भूयः किलाकिलां कुर्वन्पुनरायान्महाकपिः॥७८॥
उससे विवाह करके महातेजस्वी मारुतात्मज हनुमान मुदित होकर लौट आए।

इदं हनूमच्चरितं ये शृण्वंति पठंति च।
लिखंति पुस्तके वापि सर्वान्कामानवाप्नुयुः॥७९॥
इस हनुमान के चरित को जो सुनते हैं, पढते हैं अथवा पुस्तक में लिखते हैं, वे सभी कामनाओं को प्राप्त करेंगे।

सुवर्चलासमेतश्रीहनुमद्द्वादशाक्षरम्।
ये जपन्ति महात्मानः लभंते ते मनोरथान्॥८०॥
सुवर्चला के साथ श्रीहनुमान के द्वादश अक्षर मंत्र को जो महात्मन् जपते हैं वे अपने मनोरथों को प्राप्त करते हैं।

जयंतीनामपूर्वोक्ता हनूमज्जन्मवासरः तस्यां भक्त्या कपिवरं नरा नियतमानसाः।
जपंतश्चार्चयंतश्च पुष्पपाद्यार्घ्यचंदनैः धूपैर्दीपैश्च नैवेद्यैः फलैर्ब्राह्मणभोजनैः।
समंत्रार्घ्यप्रदानैश्च नृत्यगीतैस्तथैव च तस्मान्मनोरथान्सर्वान्लभंते नात्र संशयः॥८१॥
हनुमान के जन्म का दिन पहले जयंती नाम से बताया गया है। उस दिन भक्तिपूर्वक, मन को वश मे करके, पुष्प, अर्घ्य चंदन से, धूप, दीप से, नैवेद्य से, फलों से, ब्रह्मणों को भोजन कराने से, मंत्रपूर्वक अर्घ्य प्रदान करने से तथ नृत्यगीता आदि से कपिश्रेष्ठ का जप, अर्चना करते हुए मनुष्य सभी मनोरथों को प्राप्त करते हैं, इसमें कोई संशय नहीं है।

एको देवस्सर्वदश्श्रीहनूमान् एको मन्त्रश्श्रीहनूमत्प्रकाशः।
एका मूर्तिश्श्रीहनूमत्स्वरूपा चैकं कर्म श्रीहनूमत्सपर्या॥८२॥
हमेशा एक ही देवता हैं - हनुमान, एक ही मंत्र है - हनूमत्प्रकाशक मंत्र, एक ही मूर्ति है - हनुमान स्वरूप की, और एक ही कर्म है - हनुमान की पूजा।

जलाधीना कृषिस्सर्वा भक्त्याधीनं तु दैवतम्।
सर्वहनूमतोऽधीनमिति मे निश्चिता मतिः॥८३॥
पूरी कृषि जल के आधीन है, देवता भक्ति के आधीन हैं, सबकुछ हनुमान के आधीन है, ऐसा मेरा निश्चित मत है।

हनूमान्कल्पवृक्षो मे हनूमान्मम कामधुक्।
चिन्तामणिस्तु हनुमान्को विचारः कुतो भयम्॥८४॥
हनुमान मेरे कल्पवृक्ष हैं, हनुमान मेरी कामधेनु हैं, हनुमान मेरी चिंतामणि हैं, इसमें विचार करने का क्या है, भय कहाँ है?

-अथ पूजान्ते अर्घ्यप्रदानं कर्तव्यम्
अब पूजा के अंत मे अर्घ्य प्रदान करना चाहिए-

दशम्यां मंदयुक्तायां कृष्णायां मासि माधवे।
पूर्वाभाद्राख्यनक्षत्रे वैधृतौ हनुभानभूत्॥८५॥
(श्रीसुवर्चलासमेतहनुमते नम इदमर्घ्यं समर्पयामि)माधव मास के कृष्ण पक्ष की दशमी पर, पूर्वभद्र नक्षत्र में, वैधृती योग में हनुमान हुए।(श्री सुवर्चला समेत हनुमान को नमस्कार यह अर्ध्य समर्पित कर रहा हूँ)

जातः कपिकुलांभोधौ स्वर्णरभावनाश्रयः।
भक्तसंरक्षणार्थाय गृहणार्घ्य नमोस्तु ते॥८६॥
(श्रीसुवर्चलासमेतहनुमते नम इदमर्घ्यं समर्पयामि)वानरकुल के सागर में भक्तों के रक्षण के लिए जन्मे (आप को) नमस्कार हो। इस अर्घ्य को स्वीकार करें।(श्री सुवर्चला समेत हनुमान को नमस्कार यह अर्ध्य समर्पित कर रहा हूँ)

दुष्टानां शिक्षणार्थाय शिष्टानां रक्षणाय च।
रामकार्यार्थसिद्ध्यर्थं जातः श्रीहनुमान्कपिः॥८७॥
(श्रीसुवर्चलासमेतहनुमते नम इदमर्घ्यं समर्पयामि)दुष्टों को शिक्षा देने के लिए और शिष्टों की रक्षा के लिए, रामकार्य की सिद्धि के लिए वानर श्री हनुमान जन्मे।(श्री सुवर्चला समेत हनुमान को नमस्कार यह अर्ध्य समर्पित कर रहा हूँ)

अंजनागर्भसंभूतः हनूमान्पवनात्मज।
गृहाणर्घ्य मया दत्तं कपिवर्य नमोस्तु ते॥८८॥
(श्रीसुवर्चलासमेतहनुमते नम इदमर्घ्यं समर्पयामि)अंजना के गर्भ से जन्मे, हनुमान, पवन के आत्मज, मेरे द्वारा दिया अर्घ्य स्वीकारें। हे कपिवर्य! आपको नमस्कार हो।(श्री सुवर्चला समेत हनुमान को नमस्कार यह अर्ध्य समर्पित कर रहा हूँ)

पूर्वभाद्राकुम्भराशौ मध्याह्ने कर्कटांशके।
कौण्डिन्यवंशे संजातो हनुमानंजनोद्भवः॥८९॥
(श्रीसुवर्चलासमेतहनुमते नम इदमर्घ्यं समर्पयामि)अंजना के पुत्र हनुमान कुम्भ राशी के पूर्वभाद्रा नक्षत्र के कर्कट अंश में मध्याह्न के समय पर कौण्डिन्य वंश में जन्मे।(श्री सुवर्चला समेत हनुमान को नमस्कार यह अर्ध्य समर्पित कर रहा हूँ)

मन्त्रम्श्रीशब्दाद्धहनुमच्छब्दो जयशब्दस्ततः परं हनुमान्जयशब्दं हि संपुटीकरणं परः।
जयद्वयावधिश्चोर्ध्वँ हनुमन्नाम वै ततः मंत्रोऽयं षोडशार्णस्तु महापातकनाशकः॥९०॥
मन्त्र'श्री' शब्द के बाद 'हनुमत्' शब्द उसके बाद 'जय' शब्द इसके बाद 'हनुमान्' शब्द इसके बाद दो बार 'जय' शब्द और इसके बाद 'हनुमत्' नाम - यह सोलह अक्षर का मन्त्र पाप का महानाशक है।

॥इति हनुमज्जन्मकथनं नाम षष्ठः पटलः॥

रोचक और अजीब संग्रह आपके लिए.....

सभी धर्म प्रेमियोँ को मेरा यानि पेपसिह राठौङ तोगावास कि तरफ से सादर प्रणाम।


No comments:

Post a Comment